प्रधानमंत्री के वक्तव्य की विश्वसनियता का संकट और देश की लचर अर्थव्यवस्था

भारतीय रिजर्व बैंक में पुराने नोट बदलवाने की सुविधा एक झटके मे खत्म कर दी गयी लेकिन 8 नवम्बर को नोटबंदी की घोषणा के वक्त साफ़ साफ़ कहा गया था क़ि “अगर 30 दिसंबर तक आप अपने सभी पुराने नोट नहीं जमा कर पाते हैं तो कोई बात नहीं. तब भी आपके पास एक रास्ता होगा. आप आरबीआई के क्षेत्रीय कार्यालयों पर अपना आईडी कार्ड दिखाकर एक घोषणा पत्र भरकर 31 मार्च 2017 तक इन पुराने नोटों को जमा कर सकेंगे”.
देश की आम जनता अब से आरबीआई में नोट नहीं बदल पाएगी. सिर्फ एनआरआई या देश से कुछ समय बाहर रहे लोग कुछ शर्तों के साथ आरबीआई में पुराने नोट जमा कर पाएंगे और वो भी रिजर्व बैंक के चुनिन्दा कार्यालयों मेंं ही यह सुविधा प्राप्त कर सकते हैं, जबकि पहले देश के सभी क्षेत्रीय कार्यालयों में यह सुविधा देने की बात कही गयी थी.
मान लीजिए क़ि कोई गुजराती nri है. वह इस घोषणा पर विश्वास कर सीधे विदेश से अहमदाबाद आ गया. अब वह दिल्ली बम्बई दौड़ लगायेगा.
मोदी समर्थको को अब भी लग रहा है कि इसमें क्या गलत है, अब तक क्या सो रहे थे ?
बात सिर्फ इतनी है कि सरकार के वक्तव्य का कोई मूल्य है कि नहीं, रोज-रोज अपनी बातों से पलट कर सरकार अपनी विश्वसनियता खो रही है. आज कौन यह विश्वास करेगा क़ि आज जो आप बोल रहे कल को उस से पलट नहीं जायेंगे ? यह कोई राजनीतिक खेल नहीं है. भारत की अर्थव्यवस्था है, कृपया इसे बख्श दीजिये.
क्या कोई विदेशी निवेशक इस माहौल मेंं भारत में पैसा लगाने को तैयार होगा ?

1. विदेशी निवेशकों का भरोसा बुरी तरह हिल गया है. विदेशी फोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) एक मानक पैमाना है. अक्तूबर 2016 तक, शुद्ध एफपीआई 43,428 करोड़ रु. के स्तर पर सकारात्मक था. नवंबर और दिसंबर में, इसका प्रवाह नाटकीय ढंग से उलटा हो गया: 66,137 करोड़ रु. का एफपीआई बाहर चला गया. नतीजतन, एफपीआई का आंकड़ा 22,709 करोड़ रु. ऋणात्मक हो गया. पिछली बार एफपीआई 2008 में ऋणात्मक हुआ था, जब एक अप्रत्याशित वित्तीय संकट आया था. अगर 2008 में एफपीआई के बाहर जाने के पीछे अपनी ‘सुरक्षा’ की फिक्र थी, तो इस बार यानी 2016 में यहां की ‘अनिश्चितता’ वजह बनी. क्या अनिश्चितता समाप्त होगी और विदेशी निवेशक जल्दी ही लौटेंगे? यह एक अनसुलझा सवाल सरकार और देश के सामने है.

2. दिसंबर 2015 में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) 184.2 पर था. अप्रैल 2016 में यह 175.5 और अक्तूबर 2016 में 178 था. आईआईपी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की सेहत को मापने का पैमाना है. सबसे बुरा हाल रहा गैर-टिकाऊ उपभोक्ता सामान के घटक का, जिसमें 25 फीसद की गिरावट आई. पूंजीगत सामान में छह फीसद की कमी दर्ज हुई. हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर मार्च 2017 में आईआईपी, अप्रैल 2016 के मुकाबले नीचे नजर आए, जो कि इस बात का विरल उदाहरण होगा जब औद्योगिक उत्पादन में वास्तव में पूरे साल गिरावट का सिलसिला चला हो. ‘मेक इन इंडिया’ किधर जा रहा है?

3. आर्थिक गतिविधि का आईना है ऋण-वृद्धि. नवंबर 2016 के अंत में, सालाना आधार पर ऋण-वृद्धि थी 6.63 फीसद, जो कि ऐतिहासिक गिरावट कही जाएगी; इससे अधिक गिरावट का पता लगाने के लिए हमें कई दशक पीछे जाना होगा. इसमें से, गैर-खाद्य श्रेणी की ऋण-वृद्धि थी 6.99 फीसद. मझोले उद्योगों का क्षेत्र (कपड़ा, चीनी, सीमेंट, जूट) ऐसा है जो कि नियमित व स्थायी रोजगार देता है. सालाना आधार पर, मझोले उद्योगों की ऋण वृद्धि दर जून 2015 से हर महीने ऋणात्मक रही है. अगर हम लघु व सूक्ष्म उद्योगों की बात करें, तो हालत और भी बुरी है. इस समय लघु व सूक्ष्म उद्यमों की ऋण वृद्धि (-) 4.29 फीसद है. नोटबंदी के बाद बहुत-से उद्यम बंद हो गए हैं और उन्होंने लाखों कामगारों को काम से निकाल दिया है.
4. जबकि ऋण-वृद्धि सुस्त है- जो कि निवेश के लिए ऋण की मांग कमजोर पड़ जाने का परिचायक है- कुल एनपीए की हालत और भी खराब हो गई है. सितंबर 2015 में एनपीए 5.1 फीसद था, जो कि सितंबर 2016 में 9.1 फीसद हो गया. यह बैंकिंग सेक्टर के लिए दोहरी मार है. बैंकों के पास ऋण के ग्राहक बहुत कम हैं, और दूसरी तरफ, वे अपने दिए हुए कर्ज वसूल नहीं पा रहे हैं. ऐसे में इस निष्कर्ष को झुठलाया नहीं जा सकता कि औद्योगिक क्षेत्र की सेहत सुधारने का वादा अभी तक कोरा वादा ही है, और उसकी सेहत में सुधार के कोई लक्षण नहीं दिख रहे.
5. निर्यात किसी अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धी क्षमता के साथ-साथ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की मजबूती का एक विश्वसनीय पैमाना है. पिछले कुछ सालों में, जनवरी से नवंबर के बीच, गैर-पेट्रोलियम जिन्सों के निर्यात के मूल्य पर नजर डालें:

2012 : 218.79 अरब डॉलर

2013 : 228.26.  ,,

2014 : 236.94.  ,,

2015 : 216.11.  ,,

2016 : 213.80.  ,,

हालांकि गिरावट के पीछे ब्रेक्जिट और संरक्षणवाद जैसे कुछ वैश्विक कारण माने जा सकते हैं, मगर मुख्य वजह भारत में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का कमजोर पड़ना ही है. यह साफ दिखने वाली देखने वाली हकीकत है कि जब जिन्सों का निर्यात घटता है, तो इसका अर्थ है कि हम बाजार को गंवाते हैं और रोजगार में कमी आती है. खोए हुए बाजार में फिर से पैठ बनाना आसान नहीं होता, क्योंकि कुछ दूसरे देश मांग की पूर्ति के लिए आगे आ चुके होते हैं. न तो प्रधानमंत्री ने और न ही वित्तमंत्री ने जिन्सों का निर्यात घटने पर चेताना जरूरी समझा है. हमें नहीं पता कि मौजूदा स्थिति को पलटने के उपायों पर कोई गंभीर बातचीत हुई है.

सर्जिकल स्ट्राइक के बाद

यहां केवल पांच मुद्दे उठाए हैं जो अर्थव्यवस्था की सेहत के सूचक हैं. कोई तटस्थ पर्यवेक्षक यह मानेगा कि सभी पांच मुद्दे- एफपीआई, आईआईपी, ऋण वृद्धि, एनपीए और निर्यात- नोटबंदी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. लिहाजा, बेशक यह कहा जा सकता है कि 8 नवंबर 2016 को हुए विमुद्रीकरण से जो भारी अफरातफरी हुई, उससे भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा और बिगड़ी ही है. इस स्तंभ का समापन, दूसरे सर्जिकल स्ट्राइक की कीमत का संक्षिप्त जिक्र किए बगैर नहीं कर सकता, जो हम चुका रहे हैं. घुसपैठ और आतंकी हमलों का खात्मा करने के मकसद से हुई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ ( 30 सितंबर) के बाद से जम्मू-कश्मीर में 33 सुरक्षाकर्मी अपनी जान गंवा चुके हैं. यह आंकड़ा, 25 दिसंबर को, 2015 के मुकाबले दुगुने पर पहुंच गया। बहादुर जवानों की आत्मा को शांति मिले. आपको नए साल की शुभकामनाएं.



Author: Rohit Sharma
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